INTERNATIONAL JOURNAL OF SCIENTIFIC DEVELOPMENT AND RESEARCH International Peer Reviewed & Refereed Journals, Open Access Journal ISSN Approved Journal No: 2455-2631 | Impact factor: 8.15 | ESTD Year: 2016
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हरिराम मीना वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य में चर्चित रचनाकार तथा विमर्शकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके हैं। यूं तो उनके लेखन की शुरुआत कविताओं से ही हुई है मगर उनको कथाकार के रूप में अधिक ख्याति प्राप्त हुई है जिनमें उपन्यास, कहानी,यात्रावृत्त तथा संस्मरण प्रमुख हैं। हरिराम मीना स्वयं भी राजस्थान के 'मीना'आदिवासी समुदाय से सम्बंध रखते हैं। जिसका प्रभाव उनके साहित्य में भी देखा जा सकता है। इनके अबतक प्रकाशित कविताओं के संग्रह हाँ, चाँद है मेरा, सुबह के इंतजार में, आदिवासी जलियांवाला तथा अन्य कविताएं प्रमुख हैं। इन संग्रह की कविताओं को पढ़ने से ज्ञात होता है कि इनकी कविताओं का विषय वैविध्य है। कवि ने आदिवासी विमर्श के साथ- साथ समकालीन कविता के अनुभूति पक्ष को भी अपना रखा है। यही कारण है कि उनकी कविता में विषय की दृष्टि से अनेकानेक स्वरूप देखने को मिलता है। वह कभी प्रगतिशील दृष्टि से समाज को देखता है, कभी मिथकीय दृष्टि से संसार को परखता है। कभी प्रकृति के विविध बिम्ब बुनता है और कभी जीवन की सत्यता को सामने लाता है तो कभी दार्शनिक रूप से संसार को तार्किक दृष्टि से देखने का प्रयत्न करता है। हमारा ध्येय यहाँ पर उनकी आदिवासी कविताओं के कथ्य पर ही विचार करना है। हरिराम मीना ने कविता बनने की प्रक्रिया के बारे में 'हाँ, चाँद मेरा है' संग्रह की भूमिका में इस बात को स्वीकार किया है कि काव्य लेखन एक प्रवाह है जो वैयक्तिक प्रक्रिया के रूप में प्रगट होता है। वे लिखते हैं- "जब कोई एकांति मन अपने भीतर के तहखानों को परत- दर -परत उघाड़ता चला जाता है और अँधेरे में भटकते किसी अनजान प्रकाश कण से टकराता है तो शायद कविता होती है। जब परिवेश में घटित हो रही असंख्य घटनाओं में से कोई एक स्वयं से मेल खाती है तो शायद कविता होती है जब हिमालय के उतुंग श्रृंगों को छू रहे मेघों का कोई हल्का सा रेशा समुद्रों में बिखरे अन्तरियों के पग तलों में से लिपटे किसी भारी जल कण से वार्तालाप करता है तो शायद कविता होती है"।1 हरिराम मीना की कविताओं में आदिवासी समाज की विसंगतियों और विडम्बनाओं की वह सच्चाई है जिसमें आदिवासी वर्ग पीड़ा, वेदना से ग्रस्त होकर कराह रहा है और सभ्य समाज तमाशबीन बनकर उनका बहुविध मजाक बना रहा है। उनके अभिशप्त जीवन की विडंबना को सुधारने के लिए न तो सरकार आगे आ रही है और न आम जनता जो लोकतंत्र का प्रहरी भी है, निर्णायक है, नियामक भी। यह कैसा समाज है,जहाँ विकास की दौड़ में सबसे अंतिम पायदान पर खड़ा प्रकृति पुत्र जो यहाँ का अनादिकाल से निवासी हैं वह अपने लिए कोई प्रतिरोध नहीं कर पा रहा है। इसी सच्चाई को वे अपनी कविताओं में लगातार उठाते रहे हैं।
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Cite Article:
"हरिराम मीना की आदिवासी कविताओं का कथ्य", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijsdr.org), ISSN:2455-2631, Vol.8, Issue 12, page no.758 - 763, December-2023, Available :http://www.ijsdr.org/papers/IJSDR2312098.pdf
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Publication Details:
Published Paper ID: IJSDR2312098
Registration ID:209637
Published In: Volume 8 Issue 12, December-2023
DOI (Digital Object Identifier):
Page No: 758 - 763
Publisher: IJSDR | www.ijsdr.org
ISSN Number: 2455-2631
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